अगर उनके पास बंगले होते
तो वो भी शायद कह रहे होते
“Lockdown में भी
ये घर में नही बैठ सकते थे?”
या शायद खबर पढ़ कर बोलते
“पटरी भी क्या कोई सोने की जगह है?
क्या यही मिला बस सोने को? ”
पर न ही उनके पास अपने बंगले थे
न ही था उनके पास खाने को अनाज
था तो बस एक गाँव
जहाँ वो जाना चाहते थे
पर शायद वो नहीं जानते थे
की शहरों की तरफ आने वाले रास्ते
उनके लिए अब वापस नहीं मुड़ेंगे
कोचिंग सेंटर पर
पढ़ने वाले बच्चों के लिए
सरकार ने बस तो चलने के निर्देश दे दिए थे
पर मज़दूरों के गाँव तक जाने वाली ट्रेन
कर डाली थी सब रद्द
अब उनके पास बचा था तो
हमेशा की तरह
पत्थरों से भरा एक पटरियों का रास्ता
उनकी ग़लती ये थी की
वो कुछ देर सिर रख कर आराम चाहते थे
कुछ देर सोना चाहते थे
ट्रेन उनके लिए नहीं चलाई जा सकी
पर हाँ
उन पर चल कर
उन्हें हमेशा के लिए सुला ज़रूर गयी
और छोड़ गए वो मरते – मरते
वही अपनी महज 4 रोटियां
जिन्हें कमाने के लिए
वो गाँव से शहर आए थे !!
– भारती पांचाल